फिर मैंने इस्लाम के बारे में जानना शुरू कर दिया और मेरे उसी दोस्त ने मुझको इस्लाम की कई किताबें ला कर दिन और मैंने उनको पढ़ना शुरू कर दिया। उसने मुझको क़ुरआन भी लाकर दी। और जब मैंने उसको पढ़ा तो मैं एक दम से हैरान हो गई। मैंने देखा की इस्लाम वैसा नही है जैसा की इस्लाम को बताया जाता है।
इस्लाम एक बहुत ही सादा और अच्छा धर्म है। मैंने किताबें पढ़ी और मैंने मुहम्मद (स अ व) की कई ऐसी बातें देखी जो की बहुत प्यारी थी। और उनकी सभी बातें बहुत अच्छी थीं। उन्होंने हमेशा ही ईमानदारी ही की थी। और वह कभी भी किसी का बुरा नही चाहते थे। और फिर मैंने इस्लाम को सच धर्म पा कर उसको अपना लिया और मुसलमान हो गई।
अनुवाद :-बिलाल फ़ैयाज़ साभार : www.ieroworld.net
अस्सलामु अलैकुम वरहमतुल्लाहि वबरकातुहु, मेरा नाम एमी होजकिन्स है। मैं डर्बी की रहने वाली हूँ। मैं बहुत छोटे परिवार से हूँ। मैं एक पारंपरिक अंग्रेजी और आयरिश परिवार से हूँ। मेरा परिवार ईसाई है पर हम कभी भी ईसाई धर्म की बातों पर अमल नही करते थे। मुझको जो कुछ भी ईसाइयत के बारे में पता था सब कुछ मैंने अपने स्कूल से ही सीखा था।
मैं हमेशा ईश्वर पर भरोसा और आस्था रखती थी। मेरा यह इसलिए मानना था क्योंकि इसका एक तर्क है। मैं यह सोचती थी की, कोई न कोई तो है जिसने सब को बनाया है। जो सब कुछ चला रहा है। पर सिर्फ फर्क यह था की मुझे सही राह नही मिली थी।
क्योंकि मैं धर्म को लेकर इच्छुक थी तो मेरे सभी दोस्त और टीचर मुझको बहुत पुराने ख्याल का का समझते थे और मुझसे ज़्यादातर दूरियां बनाए रहते थे। ऐसा काफी साल तक हुआ और मैं अकेले ही रहा करती थी पर जब मैं अपने हाई स्कूल में पहुंची तो थोड़ा बहुत बदलाव आया। और मेरे दोस्त भी बनने लगे और मेरी टीचर लोग भी मुझको सपोर्ट करने लगीं। अब मैं उनके साथ थोड़ा हल्का महसूस करती थी।
पर मेरे साथ ऐसा इसलिए भी हो रहा था क्योंकि मैं कहीं न कहीं नास्तिक बनी जा रही थी। यही कारण था जो मेरे दोस्त बन रहे थे वे नास्तिक ही थे । मेरे बचपन में बहुत सी ऐसी घटनाए हुई थी जिससे की मैं अब ईश्वर को पूजना नही चाहती थी।
मैं ऐसा समझती थी की ईश्वर सिर्फ लोगों को सज़ा देना ही चाहते हैं। तो इसी कारण मैं ईश्वर की प्रार्थना नही करना चाहती थी। जब मैं पढाई कर रही थी तब मुझे धर्म के बारे में भी पढ़ना पड़ा था। तब मुझे अपने धर्म (ईसाई) को जानने का फिर से मौका मिला। पर मैंने जब ईसाई धर्म को जाना तो मैंने देखा की इस धर्म में बहुत सी खामिया हैं। उसमें कई ऐसी बातें मुझको नज़र आई जिनको माना नही जा सकता था। पर मेरे दिल में धर्म को लेकर फिर से जिज्ञासा उमड़ गई थी और अब मैं छोटी नही थी और मैं अब सही और सच्चे धर्म को जानने की समझ रखती थी और मैं अब जुट गई थी की मैं कैसे सही रास्ते पर चल सकूँ।
मैं वैसे बहुत परेशान रहने लगी थी। क्योंकि मैं सही धर्म के बारे में जल्द से जल्द जानना चाहती थी।
और उसी समय मेरी 11वीं की परीक्षा भी शुरू होने वाली थी तो उस कारण मैं और भी ज़्यादा परेशान हो गई थी। मैं यह सोचने लगी थी की पहले मुझको अपनी पढाई पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि अगर मैं फ़ैल हो गई तो मेरी कोई इज़्ज़त नही रहेगी। मैं बहुत चिंतित थी। मैंने हमेशा से ही बहुत कुछ सहा था।
मुझे बचपन में भी बहुत प्रताड़ित किया गया था। और तभी से उसका मेरे ऊपर बहुत बुरा असर पड़ा था और इसी कारण में सोच बिलकुल नकारात्मक हो गई थी। मैं किसी को भी अच्छा नही समझती थी। और मेरी ज़िन्दगी में एक ऐसा भी पल आया था जब मैं अपनी ज़िन्दगी से एकदम हार चुकी थी मैं कुछ भी नही करना चाहती थी।
जब मैं ईसाई धर्म के बारे में पढाई कर रही थी तब मैंने यह देखा की अगर ईश्वर यह चाहते हैं की हम स्वर्ग में जाएं तो वह हमारे लिए यह आसान कर देते की हम उनको पहचान सकें। और हमको उनके बारे में पता होना चाहिए पर ईश्वर ने हमारे लिए मुश्किलें की जैसे की बाइबिल में कहीं कहा गया है वह ईश्वर हैं और कहीं कहा गया की ईसा जो की ईश्वर के बेटे हैं वह ईश्वर हैं। मैंने बाइबिल में पढ़ा था की ईसा (अ. स.) ईश्वर के बेटे हैं। पर ईसा (अ. स.) तो आम लोगों की तरह चलते थे, रहते थे और खाते-पीते भी थे। अगर वह खुद ही ईश्वर भी थे तो वह ईश्वर की पूजा क्यू करते थे।
आगे चल कर जब मैं 18 साल की हुई तब मेरा एक दोस्त बना जो की एक मुसलमान था। और उसने ही मेरा सबसे पहले इस्लाम से परिचय करवाया। और कुछ साल बाद उसने मुझको शादी करने के लिए बोला। तो वह चाहता था की मैं मुसलमान हो जाऊं पर मैंने कहा की मैने सभी धर्म के बारे में सुना है। पर मैंने इस्लाम के बारे में कभी कुछ भी नही जाना था। मैंने जैसा की खबर में सुना था की सितम्बर 11 में मुसलमानों का हाँथ था।
पर फिर भी मैं मुसलमानों से किसी भी तरह से जलती नही थी। मेरी मुसलमानों को लेकर कोई भी हीं भावना नही थी। फिर मैंने इस्लाम के बारे में जानना शुरू कर दिया और मेरे उसी दोस्त ने मुझको इस्लाम की कई किताबें ला कर दिन और मैंने उनको पढ़ना शुरू कर दिया। उसने मुझको क़ुरआन भी लाकर दी। और जब मैंने उसको पढ़ा तो मैं एक दम से हैरान हो गई। मैंने देखा की इस्लाम वैसा नही है जैसा की इस्लाम को बताया जाता है। इस्लाम एक बहुत ही सादा और अच्छा धर्म है।
मैंने किताबें पढ़ी और मैंने मुहम्मद (स अ व) की कई ऐसी बातें देखी जो की बहुत प्यारी थी। और उनकी सभी बातें बहुत अच्छी थीं। उन्होंने हमेशा ही ईमानदारी ही की थी। और वह कभी भी किसी का बुरा नही चाहते थे। और फिर मैंने इस्लाम को सच धर्म पा कर उसको अपना लिया और मुसलमान हो गई।.
इस्लाम एक बहुत ही सादा और अच्छा धर्म है। मैंने किताबें पढ़ी और मैंने मुहम्मद (स अ व) की कई ऐसी बातें देखी जो की बहुत प्यारी थी। और उनकी सभी बातें बहुत अच्छी थीं। उन्होंने हमेशा ही ईमानदारी ही की थी। और वह कभी भी किसी का बुरा नही चाहते थे। और फिर मैंने इस्लाम को सच धर्म पा कर उसको अपना लिया और मुसलमान हो गई।
अनुवाद :-बिलाल फ़ैयाज़ साभार : www.ieroworld.net
अस्सलामु अलैकुम वरहमतुल्लाहि वबरकातुहु, मेरा नाम एमी होजकिन्स है। मैं डर्बी की रहने वाली हूँ। मैं बहुत छोटे परिवार से हूँ। मैं एक पारंपरिक अंग्रेजी और आयरिश परिवार से हूँ। मेरा परिवार ईसाई है पर हम कभी भी ईसाई धर्म की बातों पर अमल नही करते थे। मुझको जो कुछ भी ईसाइयत के बारे में पता था सब कुछ मैंने अपने स्कूल से ही सीखा था।
मैं हमेशा ईश्वर पर भरोसा और आस्था रखती थी। मेरा यह इसलिए मानना था क्योंकि इसका एक तर्क है। मैं यह सोचती थी की, कोई न कोई तो है जिसने सब को बनाया है। जो सब कुछ चला रहा है। पर सिर्फ फर्क यह था की मुझे सही राह नही मिली थी।
क्योंकि मैं धर्म को लेकर इच्छुक थी तो मेरे सभी दोस्त और टीचर मुझको बहुत पुराने ख्याल का का समझते थे और मुझसे ज़्यादातर दूरियां बनाए रहते थे। ऐसा काफी साल तक हुआ और मैं अकेले ही रहा करती थी पर जब मैं अपने हाई स्कूल में पहुंची तो थोड़ा बहुत बदलाव आया। और मेरे दोस्त भी बनने लगे और मेरी टीचर लोग भी मुझको सपोर्ट करने लगीं। अब मैं उनके साथ थोड़ा हल्का महसूस करती थी।
पर मेरे साथ ऐसा इसलिए भी हो रहा था क्योंकि मैं कहीं न कहीं नास्तिक बनी जा रही थी। यही कारण था जो मेरे दोस्त बन रहे थे वे नास्तिक ही थे । मेरे बचपन में बहुत सी ऐसी घटनाए हुई थी जिससे की मैं अब ईश्वर को पूजना नही चाहती थी।
मैं ऐसा समझती थी की ईश्वर सिर्फ लोगों को सज़ा देना ही चाहते हैं। तो इसी कारण मैं ईश्वर की प्रार्थना नही करना चाहती थी। जब मैं पढाई कर रही थी तब मुझे धर्म के बारे में भी पढ़ना पड़ा था। तब मुझे अपने धर्म (ईसाई) को जानने का फिर से मौका मिला। पर मैंने जब ईसाई धर्म को जाना तो मैंने देखा की इस धर्म में बहुत सी खामिया हैं। उसमें कई ऐसी बातें मुझको नज़र आई जिनको माना नही जा सकता था। पर मेरे दिल में धर्म को लेकर फिर से जिज्ञासा उमड़ गई थी और अब मैं छोटी नही थी और मैं अब सही और सच्चे धर्म को जानने की समझ रखती थी और मैं अब जुट गई थी की मैं कैसे सही रास्ते पर चल सकूँ।
मैं वैसे बहुत परेशान रहने लगी थी। क्योंकि मैं सही धर्म के बारे में जल्द से जल्द जानना चाहती थी।
और उसी समय मेरी 11वीं की परीक्षा भी शुरू होने वाली थी तो उस कारण मैं और भी ज़्यादा परेशान हो गई थी। मैं यह सोचने लगी थी की पहले मुझको अपनी पढाई पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि अगर मैं फ़ैल हो गई तो मेरी कोई इज़्ज़त नही रहेगी। मैं बहुत चिंतित थी। मैंने हमेशा से ही बहुत कुछ सहा था।
मुझे बचपन में भी बहुत प्रताड़ित किया गया था। और तभी से उसका मेरे ऊपर बहुत बुरा असर पड़ा था और इसी कारण में सोच बिलकुल नकारात्मक हो गई थी। मैं किसी को भी अच्छा नही समझती थी। और मेरी ज़िन्दगी में एक ऐसा भी पल आया था जब मैं अपनी ज़िन्दगी से एकदम हार चुकी थी मैं कुछ भी नही करना चाहती थी।
जब मैं ईसाई धर्म के बारे में पढाई कर रही थी तब मैंने यह देखा की अगर ईश्वर यह चाहते हैं की हम स्वर्ग में जाएं तो वह हमारे लिए यह आसान कर देते की हम उनको पहचान सकें। और हमको उनके बारे में पता होना चाहिए पर ईश्वर ने हमारे लिए मुश्किलें की जैसे की बाइबिल में कहीं कहा गया है वह ईश्वर हैं और कहीं कहा गया की ईसा जो की ईश्वर के बेटे हैं वह ईश्वर हैं। मैंने बाइबिल में पढ़ा था की ईसा (अ. स.) ईश्वर के बेटे हैं। पर ईसा (अ. स.) तो आम लोगों की तरह चलते थे, रहते थे और खाते-पीते भी थे। अगर वह खुद ही ईश्वर भी थे तो वह ईश्वर की पूजा क्यू करते थे।
आगे चल कर जब मैं 18 साल की हुई तब मेरा एक दोस्त बना जो की एक मुसलमान था। और उसने ही मेरा सबसे पहले इस्लाम से परिचय करवाया। और कुछ साल बाद उसने मुझको शादी करने के लिए बोला। तो वह चाहता था की मैं मुसलमान हो जाऊं पर मैंने कहा की मैने सभी धर्म के बारे में सुना है। पर मैंने इस्लाम के बारे में कभी कुछ भी नही जाना था। मैंने जैसा की खबर में सुना था की सितम्बर 11 में मुसलमानों का हाँथ था।
पर फिर भी मैं मुसलमानों से किसी भी तरह से जलती नही थी। मेरी मुसलमानों को लेकर कोई भी हीं भावना नही थी। फिर मैंने इस्लाम के बारे में जानना शुरू कर दिया और मेरे उसी दोस्त ने मुझको इस्लाम की कई किताबें ला कर दिन और मैंने उनको पढ़ना शुरू कर दिया। उसने मुझको क़ुरआन भी लाकर दी। और जब मैंने उसको पढ़ा तो मैं एक दम से हैरान हो गई। मैंने देखा की इस्लाम वैसा नही है जैसा की इस्लाम को बताया जाता है। इस्लाम एक बहुत ही सादा और अच्छा धर्म है।
मैंने किताबें पढ़ी और मैंने मुहम्मद (स अ व) की कई ऐसी बातें देखी जो की बहुत प्यारी थी। और उनकी सभी बातें बहुत अच्छी थीं। उन्होंने हमेशा ही ईमानदारी ही की थी। और वह कभी भी किसी का बुरा नही चाहते थे। और फिर मैंने इस्लाम को सच धर्म पा कर उसको अपना लिया और मुसलमान हो गई।.
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